निठल्लेपन की सियासत
भारतीय दर्शन और समाज जहाँ "सत्यमेव जयते"तथा "कर्म एव सिद्धिमन्त्र:" का पोषक और अनुयायी रहा है वहीं निठल्लेपन अर्थात आलस्य और अकर्मण्यता को सदैव "आलस्य:मनुष्याणाम शरीरस्यो महान रिपु:" कहकर सदैव कर्म की महानता को प्रतिपादित करता रहा है।किंतु विगत दो दशकों से कर्म की की महत्ता को दरकिनार कर जिस तरह से मुफ्तखोरी सत्ताप्राप्ति का प्रमुख अस्त्र बनी है,वह चिंतनीय है औरकि राष्ट्र के समक्ष एक ज्वलंत विचारणीय यक्ष प्रश्न भी है।जिसपर बुद्धिजीवियों और समाजसेवियों के साथ-साथ सत्ताजीवी राजनेताओं को भी मन्थन करना देशहित में नितांत आवश्यक है,अन्यथा "लम्हों ने खता की,सदियों ने सजा पायी" की कहावत की पुनरावृत्ति होने में कोई शक नहीं है।
ध्यातव्य है कि स्वाधीनता प्राप्ति के कुछ ही वर्षों बाद से सत्ताप्राप्ति हेतु राजनैतिक व मानवीय मूल्यों में गिरावट का जो क्रम शुरू हुआ था वह आज भी बदस्तूर दिन दूने रात चौगुने की दर से जारी है।मूल्यों और कर्तव्यों में यही गिरावट आज राष्ट्र के समक्ष एक अदृश्य शत्रु की तरह गुलामी से भी अधिक बड़े खतरे के रूप में पांव पसारती जा रही है।कदाचित यह स्थिति भावी जनसंघर्ष की द्योतक है जिसके चलते आदमी ही आदमी को मारना शुरू कर देंगें और देश जाति,धर्म,भाषा और क्षेत्र के आधार पर खण्ड-खण्ड हो जाएगा।अतः समय रहते ही एकबार पुनः वैचारिक क्रांति की आवश्यकता है।
यह एक प्रतिष्ठापित यथार्थ सत्य है कि राजनैतिक दलों का सर्वोच्च उद्देश्य केवल और केवल सत्ताप्राप्ति ही होती है।इस निमित्त उन्हें संसद और प्रान्तों की विधानसभाओं में कुल निर्धारित सीटों के आधे से अधिक का सँख्याबल आवश्यक होता है।जिसे हासिल करना ही प्रत्येक चुनावों में राजनैतिक पार्टियों का एकमात्र उद्देश्य होता है।लिहाजा सियासी दलों द्वारा जनसामान्य या मतदाताओं के बड़े वर्ग की आकांक्षाओं को भांपकर उनको भुलाने का जो क्रम शुरू होता है,वही निठल्लेपन को प्रोत्साहित करने का एकमात्र ब्रह्मास्त्र बनता है,जिससे कर्म की महिमा गौण दिखने लगती है और जनसमुदाय राष्ट्रीय,सामाजिक तथा अन्यान्य समस्याओं पर ध्यान न देकर बिना श्रम किये ही मुफ्त में सबकुछ या थोड़ा ही पाने का लोभी बनने लगता है।अतः सियासी नेतागण वैसे ही वक्तव्य देने शुरू कर देते हैं जिससे मतदाताओं का रुझान उनकी तरफ बढ़े तथा सत्ता पर वे काबिज हो सकें।कहना गलत नहीं होगा कि यही स्थिति देश की एकता अखंडता और सम्प्रभुता के लिए आतंकवाद और युद्ध से भी खतरनाक है।जिसके चलते युवाशक्ति मुफ्तखोर होकर आलसी और तर्क,चिंतन तथा मनन करने की शक्ति दिनोंदिन खोती जा रही है।
निठल्लेपन को बढ़ावा देने के बाबत अगर ताज़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश के 2022 में होने जा रहे विधानसभाई चुनावों की लेकर दिया जाय तो कमोवेश पूरा राष्ट्रीय खाका स्वयम दृश्यमान हो जाता है।समाजवादी पार्टी के मुखिया और पूर्व मुख्यमन्त्री अखिलेश यादव द्वारा सत्ता में आनेपर रोजगार के अवसर बढाने और युवाओं को नौकरी देने के वायदे के बजाय एकतरफ ब्राह्मणों को रिझाने के लिए भगवान परशुराम की मूर्ति स्थापना और उनके अवतरण दिवस पर अवकाश की घोषणा,आंदोलनों में मृत किसानों को अनुग्रह राशि और महिलाओं को हम महीने एक हजार रुपये पेंशन की देने की बातें कर रहे हैं तो आम आदमी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री मुफ्त बिजली,मुफ्त पेंशन,मुफ्त साड़ी और मुफ्त बेरोजगारी भत्ता तथा कांग्रेस के नेतागण और भाजपा के लोग भी नानाप्रकार की ऐसी घोषणाएं कर रहे हैं,जिससे मुफ्तखोरी को बढ़ावा मिल रहा है तथा युवावर्ग कमाकर खाने की बजाय मुफ्त में लूटकर जीने का व्यसनी होता जा रहा है।स्थिति दिनोंदिन बद से बदतर होती हुई मध्यम वर्ग के बिल्कुल विपरीत होती जा रही है।जिससे जहाँ निम्न मध्यमवर्गीय लोग आलसी होते जा रहे हैं,वहीं धनाढ्य और व्यापारी वर्ग पहले से अधिक धन कमाने की फिराक में है जबकि मध्यम वर्ग जीवन और मरण के बीच अस्तित्व के लिए जूझ रहा है।जिस तरफ न तो सियासतदां ध्यान दे रहे हैं और न समाजसेवी ही।
हिंदुस्थान का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि आजादी के 75 वर्षों बाद भी आज का नब्बे प्रतिशत शिक्षित समुदाय सबकुछ जानते हुए भी जातिगत व धार्मिक मसलों से स्वयम को आबद्ध कर प्रमुख राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय मुद्दों से भटकाव की स्थिति में है।चुनावों में शिक्षा व्यवस्था में सुधार,पुरानी पेंशन की बहाली,नये नये उद्योग धंधों की स्थापना, स्वास्थ्य सेवाओं में इजाफा,भ्रष्टाचार निवारण के उपाय व लोकमंगल की अन्य बातों का जिक्र न होना देश को गर्त में ले जाने के लिए पर्याप्त है।यहाँ यह बात भी कहानी दीगर है कि पूर्वांचल अर्थात पूर्वी उत्तर प्रदेश का मतदाता हरियाणा,पंजाब,राजस्थान और महाराष्ट्र के मतदाताओं की तुलना में अपेक्षाकृत मानसिक रूप से पिछड़ेपन का शिकार है।जहाँ पंजाब,राजस्थान,गुजरात,महाराष्ट्र और हरियाणा के मतदाता कल-कारखानों,सड़कों,सिंचाई के साधनों और जीवन को बेहतर बनाने वाले मुद्दों को आधार बनाकर चुनावों में वोट करते हैं वहीं उत्तर प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य के लोग आज भी इंडिया मार्का हैंडपम्प,पड़ोसियों के जातीय या धार्मिक आधार पर विरोध और मुफ्तखोरी की लालच में कुछ पाने की चाह में वोट देते हैं।यही कारण है कि पूर्वांचल में इक्कादुक्का चीनी मिलों और टांडा में थर्मल को छोड़कर कोई भी उद्योग आजतक पनप नहीं पाया।जिसके चलते यहां के लोग पूरे भारत में ईंटगाढा और सब्जी बेचने का कार्य करते हुए दिहाड़ी मजदूर बनकर आज भी लोभ के चक्कर में शराब,मांस,धन तरह प्रलोभन के फेर में अपना बहुमूल्य वोट बेंचते हैं।जिन्हें सियासी दल खूब भुनाते भी हैं।
इसप्रकार कहा जाना समीचीन है कि प्रलोभन और मुफ्तखोरी के चक्कर में आलस के शिकार मतदाता मानसिक पिछड़ेपन और कर्म की महत्ता से अपरिचित हैं।जिन्हें स्वयम आत्ममंथन करना होगा।अन्यथा सियासत की धार उन्हें कहीं की नहीं छोड़ेगी जिसका खामियाजा अंततः देश ही भुगतेगा।अतः चुनाव आयोग को स्पष्ट रूप से गाइड लाइन जारी करते हुए इसप्रकार की भावनाओं को लूटकर सत्ताप्राप्ति की घोषणाओं पर नकेल कसनी ही वक्त की नजाकत और समय की मांग है,नहीं तो युवाशक्ति के निठल्ला बनने से देश की रफ्तार एकदिन थम जाएगी और राष्ट्रीयता की भावना टूक टूक हो जाएगी।
सहारा अब तक आल इंडिया क्राइम रिपोर्टर सर्वेश पांडेय
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